Wednesday, 6 July 2011

स्मृतियों में बाबूजी...

बाबूजी के बिना मैंने ज़िंदगी की कभी कल्पना नहीं की थी। हम सोच भी नहीं सकते थे कि इस उम्र में ही हम पिता के साये से महरूम हो जाएंगें। पहले-पहल जब पता चला कि उन्हें कैंसर है तो मन में यही ख़याल आया कि अरे इसका तो इलाज़ है। हम अच्छे से अच्छे अस्पताल में इलाज़ करवाएंगे और ज़ल्दी ही उन्हें इस रोग से मुक्त करा लेंगे। लेकिन मेरा यह ख़याल अंत तक मुगालता ही रहा और तमाम कोशिशों के बाद भी हम बाबूजी को बचा नहीं पाए। कैंसर का पता चलने और उनकी मृत्यु के बीच फ़ासला रहा मात्र 7 महीने का। 7 महीने में ही हमारी दुनिया एकदम बदल गई।

बाबूजी का जाना बहुत ग़लत समय में हुआ। बाबूजी ऐसे समय में गए जब उनकी ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन आने वाले थे। लाख क़ाबिल होने के बाद भी भिलाई रिफैक्ट्रीज़ प्लांट (BRP) की कम तनख़्वाह वाली जिस नौकरी को वह पिछले 29 सालों से कर रहे थे... भिलाई स्टील प्लांट (BSP) में उसके विलय के बाद तनख़्वाह लगभग दुगुनी हो गई थी। हम दोनों भाई भी अपनी-अपनी नौकरी में जम चुके थे। डेढ़ साल पहले ही मेरे बेटे के रूप में उन्हें पोता मिला था। अप्रैल 2010 में ही मैं रायपुर में ख़रीदे अपने नए मकान में रहने आया था जिसके गृह-प्रवेश की पूजा मार्च में बाबूजी ने ही संपन्न करवाई थी। उसी साल फरवरी में उन्होंने अपनी चौथी और आख़िरी संतान यानि मेरे छोटे भाई तरूण की शादी निपटाई थी। हर तरह की ज़िम्मेदारियों को काफ़ी अच्छे तरीके से निभाकर जब उनके सुकुन भरे दिन आए तो कम्बख़्त क़िस्मत ने पलटी मार ली। बच्चों की शिक्षा, कॅरियर, शादी, घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों और ख़ुद की नौकरी की चिंता में तमाम उम्र खपाने के बाद जब बेफ्रिक्री और आराम करने के दिन आए, कैंसर ने उन्हें लील लिया। ताउम्र इस बात का बेहद अफ़सोस रहेगा कि मेरे ख़रीदे घर में बाबूजी एक दिन भी नहीं रह पाए। मेरा सपना था कि रिटायरमेंट के बाद वो इस घर में अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहें।

बाबूजी को मैंने हमेशा बहुत ज़िम्मेदार और संवेदनशील पाया। परिस्थितियां कैसी भी रहीं...हमारी हर छोटी-बड़ी ख़्वाहिशों को उन्होंने पूरा किया। हमारी ख़ुशियों में हमसे ज़्यादा ख़ुश हुए और दुखों में हमसे ज़्यादा दुखी। हमेशा से वो मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे। डिप्लोमा इन इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की तीन साल की पढ़ाई के बाद जब मैंने मीडिया का कोर्स ज्वाइन कर लिया था तब भी डिप्लोमा में मेरे अच्छे अंकों के कारण वो चाह रहे थे कि मैं डिप्लोमाधारियों के लिए तीन साल में होने वाले बी.ई. कोर्स के लिए भोपाल में हो रही कांउसिलिंग में शामिल हो जाऊं और किसी इंजीनियरिंग कॉलेज़ में दाख़िला ले लूं। हालांकि उस वक़्त उनका प्लांट लगातार घाटे की वज़ह से गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहा था और बाबूजी की माली हालत बहुत ख़राब थी। लेकिन मैं इंजीनियरिंग की तीन साल की पढ़ाई से उब चुका था और अपनी दिलचस्पी के दूसरे क्षेत्र पत्रकारिता/मीडिया में कॅरियर बनाना चाह रहा था।

बाबूजी बचपन से मेधावी थे। उनके साथ पढ़े हुए लोग आज़ भी उन्हें एक होशियार विद्यार्थी के रूप में याद करते हैं। उनके कई सहपाठियों ने मुझसे ये बातें मेरे स्कूल के दिनों में शेयर की थीं। शायद वो लोग चाहते थे कि मैं भी अपने बाबूजी से प्रेरणा लूं और पढ़ाकू बनूं। पढ़ाई-लिखाई के मामले में मैंने बाबूजी को कभी निराश नहीं किया।

अध्ययन के अलावा हम जीवनोपयोगी दूसरी चीज़ें भी सीख सकें इसका बाबूजी ने बराबर ध्यान रखा। खेलकूद, सामान्य ज्ञान, सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए वे हमेशा प्रेरित करते रहते थे। स्कूल के शुरूआती दिनों में वो हमारे लिए भाषण लिखा करते थे और गीत/कविता ढूंढ कर दिया करते थे। छुट्टी के दिनों में पढ़ने के लिए सामान्य ज्ञान की पुस्तकें लाया करते थे। उनके प्रोत्साहन और कोशिशों का ही नतीज़ा था कि हम दोनों भाई अपने स्कूल और कॉलेज़ के दिनों में पढ़ाई के साथ-साथ बांकी गतिविधियों में भी हमेशा अव्वल रहे।
बच्चों की परवरिश में बाबूजी ने किसी प्रकार की कमी नहीं की। हमारी पूरी स्कूली पढ़ाई गांव में हुई। लेकिन उन्होंने हमें गांव और शहर दोनों के संस्कार दिए। हमारी पढ़ाई और कॅरियर को लेकर वे बेहद संजीदा थे। पढ़ाई और कॅरियर को लेकर हमें न कोई रोक-टोक थी और न ही किसी तरह की आर्थिक-पारिवारिक सीमा। हम जो कोर्स करना चाहते थे कर सकते थे। हम जिस क्षेत्र में भी कॅरियर बनाना चाहते थे बना सकते थे। अब यह हमारी नालायकियत और कमज़ोरी है/थी कि हम वहां नहीं पहुंच पाए जहां शायद वो हमें देखना चाहते थे।

एक पिता और इंसान के तौर पर बाबूजी श्रेष्ठ थे। वो ख़ुद अभावों में पले-बढ़े थे। जीवन का संघर्ष उन्होंने देखा था। लेकिन हमें कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी। जिस चीज़ की मांग कर दी वो अगले दिन हमें मिल जाती थी। अपनी ज़रूरतों और शौक़ के लिए हम जितने रूपए मांगते थे उससे कहीं ज़्यादा वो हमें दिया करते थे।
मैंनें क़रीब तीन साल तक दिल्ली में नौकरी की। इस दौरान मैं जितनी बार भी दिल्ली आया-गया...चाहे अपने छोटे भाई तरूण के साथ हो या अपनी पत्नी के साथ...बाबूजी की तमाम ब्यस्तताओं के बावज़ूद ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि वो मुझे लेने या छोड़ने स्टेशन न आए हों। मेरे दोस्त मेरी क़िस्मत पर रश्क़ किया करते थे। औलाद की ऐसी चिंता और उनके प्रति ऐसा समर्पण मैंने बहुत कम लोगों में देखा है।

शायद महत्वाकांक्षी न होने की वज़ह से बाबूजी अपनी छोटी सी नौकरी में ही संतुष्ट रहे। वो अपनी शिक्षा, क्षमता और क़ाबिलियत से काफ़ी छोटा काम कर रहे थे। हालांकि इस बात का अफ़सोस उन्होंने कभी नहीं किया। लेकिन यह बात मैंने काफ़ी शिद्दत से और बार-बार महसूस की थी।
बाबूजी एक आदर्श पिता थे। जीवन के 32 वर्ष उनके संरक्षण में बिताने और दो साल से ख़ुद पिता होने के अहसास के बाद यह कहने/लिखने में मुझे ज़रा भी संकोच नहीं है। हम बहुत ख़ुशनसीब थे कि हमें बाबूजी जैसे पिता मिले...और उतने ही बदनसीब भी कि उनका साथ इतनी ज़ल्दी छूट गया। उनके जीते-जी मैंने यह बात अपने कई मित्रों के बीच एकाधिक बार कही है कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी शायद अपने बाबूजी जितना अच्छा पिता न बन सकूं। अपने बच्चे को शायद वह परवरिश न दे सकूं जो मुझे बाबूजी से मिला। यह मेरा सौभाग्य होगा ग़र मैं अपने बाबूजी जितना अच्छा पिता बन पाया।

5 जुलाई को मैंने अपने बेटे का तीसरा जन्मदिन मनाया। अगर बाबूजी होते तो वो बहुत ख़ुश होते। उस दिन बहुत याद आए बाबूजी। जी चाहा कि ख़ूब फूट-फूट कर रोऊं। पर घर में बड़ा होने के कारण मैं तो खुल कर रो भी नहीं सकताक्योंकि शायद मेरा रोना घर के बांकी लोगों को कमज़ोर कर देगा।

1 comment:

sonu kumar said...

कमलेस भाई इन तथ्यों को आपने इतने मार्मिक ढ़ंग से पिरोया है कि सारे के सारे शब्द जीवंत हो उठे .......शायद उनकी कमी आपके जीवन में हमेशा रहेगी लेकिन उन के साथ बिताये गए समय से आपकों सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।