Sunday 17 July, 2011

‘बाग़बां’ बनाम ‘सूर्यवंशम्’

टीवी पर जब कभी चैनल सर्फ करते हुए अमिताभ बच्चन की बाग़बां दिख जाती है तो मन में तुरंत सूर्यवंशम् क्लिक कर जाता है। वैसे ही सूर्यवंशम देखते हुए बागबां की याद बरबस आ जाती है। बिलकुल अलग-अलग प्लॉट पर बनी दोनों फ़िल्मों में वैसे तो समानता के नाम पर केवल अमिताभ बच्चन हैं। लेकिन दोनों फ़िल्मों में उनकी भूमिका एकदम ज़ुदा होने के बावज़ूद एक-दूसरे की पूरक लगती हैं।

पहले बात सूर्यवंशम् की। अमिताभ इसमें बाप और बेटे के डबल रोल में है। बाप अमिताभ कड़क है और अपने बेटे को नापसंद करता है। परिस्थितयां ऐसी बनती हैं कि बाप अमिताभ बेटे को घर से निकाल देता है। बाप द्वारा ख़ुद को लाख नापसंद किए जाने के बावज़ूद बेटा अमिताभ बाप का भक्त है। उसकी हर आज्ञा उसके लिए पत्थर की लकीर है। अपना बिज़नेस और अपना हर अच्छा काम वो बाप के नाम पर करता है। यहां तक कि अपने बेटे को भी अपने पिता का नाम देता है। उसका पूरा परिवार बाप अमिताभ को भरपूर इज्ज़त देता है और उनसे अलग रहने के बरसों बाद भी उन्हें ही अपने परिवार का मुखिया मानता है। परिवार के दुश्मनों से बाप-बेटा मिलकर निपटते हैं। फ़िल्म के अंत में सारे गिले-शिक़वे दूर हो जाते हैं और बाप-बेटे का परिवार एक हो जाता है। फ़िल्म का नायक बेटा अमिताभ है। बाप अमिताभ सहनायक है।

अब बात बागबां की। इसमें अमिताभ एक ऐसे पिता की भूमिका में है जिसके चार सगे और एक गोद लिया हुआ बेटा है। बेटों की परवरिश, शिक्षा और शौक़ के लिए वह अपनी सारी पूंजी ख़र्च कर देता है। अमिताभ और उनकी पत्नी (हेमामालिनी) के अरमान हैं कि रिटायरमेंट के बाद वे अपने बेटों के पास रहें। लेकिन उनका यह अरमान धरा का धरा रह जाता है। जब बेटों के पास मां-बाप को रखने की बात आती है तो दोनों को एक साथ कोई भी रखने को तैयार नहीं होता है। सभी बेटे आपस में तय कर लेते हैं कि वो बारी-बारी से मां या बाप दोनों में किसी एक को अपने साथ रखेंगे। लेकिन बेटों का यह निर्णय अमिताभ और उनकी पत्नी के लिए दुःस्वप्न साबित होता है। दोनों अलग-अलग बेटों के पास रहने के लिए चले तो जाते हैं लेकिन उन्हें कदम-कदम पर अपमान झेलना पड़ता है। अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए भी तरसना पड़ता है। अंत में दोनों पति-पत्नी तय करते हैं कि चाहे हालात कैसे भी रहे वो अपने बेटों के पास नहीं लौटेंगे और वापस एक साथ रहेंगे। समय करवट बदलता है और अमिताभ एक प्रसिद्घ लेखक बन जाते हैं। उनके लालची बेटे वापस उनसे जुड़ना चाहते हैं लेकिन अमिताभ और उनकी पत्नी उन्हें दुत्कार देते हैं।

अब आते हैं असल मुद्दे पर। सूर्यवंशम में अमिताभ की भूमिका बाप के सताए बेटे की है तो बाग़बां में बेटों के सताए बाप की। सूर्यवंशम के अमिताभ के लिए पिता ही सब कुछ है तो बाग़बां के अमिताभ के लिए उनके चार बेटे। दोनों ही फ़िल्मों में उनके अपने ही...जिनके लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगाया था, उनके लिए विपरीत हालात पैदा करते हैं।

दोनों ही फ़िल्में पिता-पुत्र संबंधों के अलग-अलग रूप और आयाम प्रस्तुत करती हैं। अमिताभ ने इन दो फ़िल्मों में कुल तीन भूमिकाएं निभाई हैं और तीनों ही बड़ी विश्वसनीयता के साथ। बाग़बां के बेटों के सताए मजबूर पिता की भूमिका हो या सूर्यवंशम के बाप द्वारा दुत्कार दिए गए बेटे की...दोनों का दर्द स्क्रीन पर बख़ूबी उभर कर आता है। दो अलग-अलग फ़िल्मों में पिता-पुत्र की भूमिकाएं बिलकुल अलग तो हैं पर दोनों एक-दूसरे की पूरक लगती हैं। अमिताभ की यह दोनों भूमिकाएं समाज में पिता-पुत्र के दो आदर्श रूपों को प्रतिबिंबित करती हैं।

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